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टाना भगत आंदोलन

टाना भगत आंदोलन

परिचय

बिरसा मुंडा आंदोलन की समाप्ति के करीब 13 साल बाद टाना भगत आंदोलन शुरू हुआ। वह ऐसा धार्मिक आंदोलन था, जिसके राजनीतिक लक्ष्य थे। वह आदिवासी जनता को संगठित करने के लिए नये 'पंथ' के निर्माण का आंदोलन था। इस मायने में वह बिरसा आंदोलन का ही विस्तार था। मुक्ति-संघर्ष के क्रम में बिरसा ने जनजातीय पंथ की स्थापना के लिए सामुदायिकता के आदर्श और मानदंड निर्धरित किये थे।

टाना भगत आंदोलन

टाना भगत आंदोलन में उन आदर्शों और मानदंडों के आधर पर जनजातीय पंथ को सुनिश्चित आकार प्रदान किया गया। बिरसा ने संघर्ष के दौरान शांतिमय और अहिंसक तरीके विकसित करने के प्रयास किये। टाना भगत आंदोलन में अहिंसा को संषर्ष के अमोघ अस्त्र के रूप में स्वीकार किया गया। बिरसा आंदोलन के तहत झारखंड में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष का ऐसा स्वरूप विकसित हुआ, जिसको क्षेत्रीयता की सीमा में बांध नहीं जा सकता था। टाना भगत आंदोलन ने संगठन का ढांचा और मूल रणनीति में क्षेत्रीयता से मुक्त रह कर ऐसा आकार ग्रहण किया कि वह गांधी के नेतृत्व में जारी आजादी के राष्ट्रीय आंदोलन का अविभाज्य अंग बन गया।

उपलब्ध इतिहास के अनुसार जतरा उरांव के नेतृत्व में उस आंदोलन के लिए जो संगठन नये पंथ के रूप में विकसित हुआ, उसमें करीब 26 हजार सदस्य शामिल थे। वह भी वर्ष 1914 के दौर में । जतरा उरांव का जन्म वर्तमान गुमला जिला के बिशुनपुर प्रखंड के चिंगारी गांव में 1888 में हुआ था। जतरा उरांव ने 1914 में आदिवासी समाज में पशु- बलि, मांस भक्षण, जीव हत्या, शराब सेवन आदि दुर्गुणों को छोड़ कर सात्विक जीवन यापन करने का अभियान छेड़ा। उन्होंने भूत-प्रेत जैसे अंधविश्वासों के खिलाफ सात्विक एवं निडर जीवन की नयी शैली का सूत्रपात किया। उस शैली से शोषण और अन्याय के खिलाफ लड़ने की नयी दृष्टि आदिवासी समाज में पनपने लगी। तब आंदोलन का राजनीतिक लक्ष्य स्पष्ट होने लगा। सात्विक जीवन के लिए एक नये पंथ पर चलने वाले हजारों आदिवासी जैसे सामंतों, साहुकारों और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संगठित 'अहिंसक सेना' के सदस्य हो गये। जतरा भगत के नेतृत्व में ऐलान हुआ- माल गुजारी नहीं देंगे, बेगारी नहीं करेंगे और टैक्स नहीं देंगे। उसके साथ ही जतरा भगत का विद्रोह 'टाना भगत आंदोलन' के रूप में सुर्खियों में आ गया। आंदोलन के मूल चरित्र और नीति को समझने में असमर्थ अंग्रेज सरकार ने घबराकर जतरा उरांव को 1914 में गिरफ्तार कर लिया। उन्हें डेढ़ साल की सजा दी गयी। जेल से छूटने के बाद जतरा उरांव का अचानक देहांत हो गया लेकिन टाना भगत आंदोलन अपनी अहिंसक नीति के कारण निरंतर विकसित होते हुए महात्मा गांधी के स्वदेशी आंदोलन से जुड़ गया। यह तो कांग्रेस के इतिहास में भी दर्ज है कि 1922 में कांग्रेस के गया सम्मेलन और 1923 के नागपुर सत्याग्रह में बड़ी संख्या में टाना भगत शामिल हुए थे। 1940 में रामगढ़ कांग्रेस में टाना भगतों ने महात्मा गांधी को 400 रु. की थैली दी थी। कालांतर में रीति-रिवाजों में भिन्नता के कारण टाना भगतों की कई शाखाएं पनप गयीं। उनकी प्रमुख शाखा को सादा भगत कहा जाता है। इसके अलावे बाछीदान भगत, करमा भगत, लोदरी भगत, नवा भगत, नारायण भगत, गौरक्षणी भगत आदि कई शाखाएं हैं। 1948 में देश की आजाद सरकार ने 'टाना भगत रैयत एग्रिकल्चरल लैंड रेस्टोरेशन एक्ट' पारित किया। यह अधिनियम अपने आप में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ टाना भगतों के आंदोलन की व्यापकता और उनकी कुर्बानी का आईना है। इस अधिनियम में 1913 से 1942 तक की अवधि में अंग्रेज सरकार द्वारा टाना भगतों की नीलाम की गयी जमीन को वापस दिलाने का प्रावधान किया गया।

स्रोत व सामग्रीदाता: संवाद, झारखण्ड

Last Modified : 2/27/2020



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