व्यक्तित्व विकास की प्रकिया को अनेक तत्व प्रभावित करते हैं, कुछ निर्धारक व्यक्तित्व की धुरी अर्थात् ‘आत्म-प्रत्यय’ को प्रभावित करते हैं तो कुछ कारक शीलगुणों को, परन्तु कोई भी कारक व्यक्तित्व के किसी एक ही पक्ष को प्रभावित नहीं करता अपितु सम्पूर्ण व्यक्तित्व इससे प्रभावित होता है| कौन से कारकों का प्रभाव अधिक होगा यह इस पर निर्भर करता है कि बच्चे में उस कारक के प्रभाव को समझने की योग्यता कितनी है? जैसे-किसी खूबसूरत बच्चे को यदि समझ है की लोग उसकी प्रसंशा करते हैं तो उसके व्यक्तित्व पर इसका धनात्मक प्रभाव पड़ेगा|
ये कारक आत्म प्रत्यय तथा व्यक्तित्व के विकास में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं| व्यक्तित्व विकास को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारकों का वर्णन क्रमशः आगे किया जा रहा है|
व्यक्ति की शारीरिक संरचना उसके व्यक्तित्व को प्रत्यक्षरूप से प्रभावित करती है| यदि व्यक्ति की शारीरिक संरचना में कोई दोष होता है तो वह व्यक्ति अपना आत्मविश्वास खो बैठता है| इस सम्बन्ध में शेल्डन (Sheldan, 1940) कार्य प्रसिद्ध है| शेल्डन ने शरीर रचना को तीन वर्गों में विभाजित किया है| पहला, एन्डोमर्फिक, दूसरा मीसोमार्फिक तथा तीसरा एक्टोमार्फिक एन्डोमार्फिक व्यक्ति मोटे, कोमल तथा गोल होते हैं| ये स्वाभाव से निश्चित एवं मिलनसार होते हैं| ‘मीसोमार्फिक’ व्यक्तियों की मांसपेशियां सुगठित होती हैं| ये शरीर रचना में आयताकार तथा मजबूत होते हैं| ऐसे व्यक्ति उर्जस्वी, कर्मठ तथा साहसी होते हैं| ‘एक्टोमार्फिक’ व्यक्ति शरीर रचना में दुबले पतले, लम्बे तथा कमजोर होते हैं ऐसे व्यक्ति बुद्धिमान, कलाकार अन्तर्मुखी होते हैं|
सारणी: शारीरिक संरचना
लक्षण शारीरिक प्रकार स्वाभाव सहसम्बध
मोटे एन्डोमर्फिक निशिंचन्त +0.79
पुष्ट/मांसल मीसोमर्फिक कर्मठ व साहसी +0.82
दुबला पतला एक्टोमार्फिक संकोची व बुद्धिमान +0.८३
आकर्षक व्यक्तित्व सबको प्रिय लगता है| चाहे बच्चा हो या बड़ा उसे इस विशेषता का लाभ मिलता है| आकर्षक लोगों के प्रति धनात्मक अभिवृत्ति तथा बदसूरत लोगों के प्रति ऋणात्मक अभिवृत्ति पायी जाती है| आकर्षक बच्चे परिवार के सदस्यों के बीच, विद्यालय में अध्यापकों तथा विद्यार्थीयों के बीच अधिक लोकप्रिय होते हैं| उन्हें अधिक अनुमोदित किया जाता है, यह अनुमोदन बच्चे के आत्म प्रत्यय पर सकारात्मक प्रभाव डालता है| ऐसे बच्चों में आत्मविश्वास, सामाजिकता तथा बहिर्मुखता जैसी विशेषताएं विकसित होती हैं|
बालक की बौद्धिक क्षमता का व्यक्ति के जीवन पर प्रभाव पड़ता है तथा उसका व्यक्तित्व इससे निर्धरित होता है| गाल्टन एवं गोगार्ड ने प्रदर्शित किया है कि प्रतिभा और मानसिक दुर्बलता व्यक्ति के आनुवांशिक गुण हैं, वंश परम्परा से संक्रमित होती हैं| उच्च स्तरीय बौद्धिक क्षमता वाले लोग मौलिक, सृजनशील, समायोजित होते हैं| गेट्जेल के अनुसार. “व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता जितनी ही अधिक होगी व्यक्ति उतना ही अधिक सृजनशील होता है|| सृजनशीलता स्वयं में विकसित व्यक्तित्व का घोत्तक है|” हिलगार्ड (1957) ने 70 से कम बुद्धि लब्धि वाले लोगों में मंद बुद्धि की श्रेणी में रखा है| मानसिक मदन्ता से पीड़ित बालकों के शरीर प्रायः बौना होता है तथा ये मंगोलियन, लघुशीर्षता तथा जलशीर्षता आदि रोगों से ग्रसित होते हैं| वस्तुतः व्यक्तित्व के संगठन पर बुद्धि का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है|
अन्तःस्रावी ग्रंथियाँ सीधे रक्त धारा में जटिल रासायनिक पदार्थ का स्राव करती हैं, जिन्हें हारमोन्स कहा जाता है| हारमोन्स की समुचित मात्र व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावी बनाती हैं| लेकिन इसकी अधिकता या कमी प्रायः व्यक्ति के व्यवहार में प्रभाविशाली परिवर्तन लाते हैं| पीयुष ग्रंथि’ को ‘मास्टर ग्रंथि’ कहा जाता है, जो पूरे शरीर के विकास को निर्धारित करती है| पीयुष ग्रंथि से निकलने वाले हारमोन्स (वृद्धि हारमोन्स) की अधिकता से शरीर का आकार बड़ा तथा बेडौल हो जाता है तथा इस ग्रंथि की अल्पसक्रियता व्यक्ति की शारीरिक वृद्धि को अवरुद्ध करता है| अतः व्यक्ति कायर, संकोची व झगड़ालू प्रवृत्ति का हो जाता है|
थायराइड ग्रंथि से निकलने वाला थायरारिक्सन हारमोन्स शरीर के उपापचयी क्रिया को नियत्रिंत करती है| इसकी अधिकता उपापचय दर को तीव्र करती है जिसके कारण शरीर के भार में कमी आ जाती है| थायरारिक्सन की शरीर में कमी, व्यक्ति के वजन में वृद्धि क्र उसमें निष्क्रियता पैदा करती है| निम्न थायरारिक्सन स्तर में बौनापन होता है| एड्रिनल ग्रंथि से निकलने वाले एड्रिनल हारमोन्स बालक को सुखवादी, सक्रिय और चंचल बनाते हैं, जबकि इसकी अल्पसक्रियता बालक को चिढ़चिड़ा, कमजोर व कुसमायोजित बना देती है|
यौन ग्रंथियों का प्रभाव भी शरीर के मानसिक एवं सामाजिक दशा पर पड़ता है| पुरुष ग्रंथि में टेस्टोस्टेरों नामक हारमोन्स का उत्पादन होता है जो कि शारीरिक बदलाव, यथा-वाणी में भारीपन, लौंगिक उन्मुख व्यवहार में वृद्धि, आक्रामकता में वृद्धि आदि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं| एस्ट्रोजेन एवं एंद्रोजेन यौन ग्रंथि से उत्पन्न द्रव पदार्थ के संतुलन मात्रा में उत्पन्न होने पर पर बालक/बालिका में यौन के अनुरूप सामान्य कोटि का शारीरिक गठन और व्यवहार विकसित होता है| परन्तु जब इन दोनों की मात्रा का संतुलन बिगड़ जाता है तो पुरुषों में स्त्रियोचित तथा स्त्रियों में पुरुषोचित गुण दृष्टिगत होता है| मार्क्स (197) के अनुसार लौंगिक भिन्नता के कारण व्यक्तित्व की संरचना में अतर मिलता है|
बच्चों की सांवेगिक दशाएं उतनी परिपक्व नहीं होती हैं| तीव्र एवं अनुपुक्त सांवेगिक उदगार बच्चे की अपरिपक्वता का सूचक होता है| यदि सांवेगिक अभिव्यक्तियों को अधिक नियंत्रित किया जाये तो बच्चे में मनमानापन आ जाता है जिसके परिणामस्वरूप इनका व्यवहार कठोर, असहयोगपूर्ण तथा अभिनतिपूर्ण हो जाता है| इसके अतिरिक्त संवेगों के अतिनियंत्रण की स्थिति में बच्चा अनेक प्रकार के सांवेगिक एवं मानसिक रोगों से ग्रस्त हो जाता है| सांवेगिक दशाओं में विभिन्न आयु के चरणों में परिलक्षित होता है| वयः संधि में मासिक धर्म प्रारंभ होने के समय लड़कियाँ में तीव्र संवेगिकता पायी जाती है|
प्रायः लोग उन बच्चों को ज्यादा समझते हैं जो सांवेगिक रूप से नियंत्रित होते हैं तथा अपने संवेगों की अभिव्यक्ति उनके वयस्कों में मानदंडों के अनुरूप करते हैं| बच्चों का संवेग किस रूप में उनके आत्म प्रत्यय को प्रभावित करता है, यह इस पर निर्भर करता है कि वयस्क उनके संवेगों का मूल्यांकन किस ढंग के कर रहे हैं| इस प्रकार संवेग अप्रत्यक्ष रूप से आत्मप्रत्यय तथा व्यक्तित्व को प्रभावित करता है| अति तीव्र सांवेगिक दशा का व्यक्तित्व पर परिकूल प्रभाव पड़ता है, जिससे इन बच्चों का सामाजिक समायोजन उपयुक्त नहीं होता है (एलेन्ड एवं एलिस, 1976) |
दिन प्रतिदिन के क्रियाकलापों में बच्चे को सफलता एवं असफलता का अनुभव होता रहता है| इसका सीधा प्रभाव उसके आत्म प्रत्यय के विकास पर पड़ता है| कभी-कभी बच्चे को समाज तो सफल मानता है, लेकिन बच्चा स्वयं को सफल नहीं मानता अतः वह अपनी सफलता और असफलता के प्रति द्वन्द की स्थिति में रहता है| बालक अपनी सफलता तथा असफलता के प्रति कैसी प्रतिक्रिया करता है यह भी उसके व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करता है तथा इससे व्यक्तिगत एवं सामाजिक समायोजन भी प्रभावित होता है| यद्यपि बच्चे सफलता और असफलता के प्रति भिन्न-भिन्न तरह से प्रतिक्रिया करते हैं तथापि इन प्रतिक्रियाओं का कुछ रूप सभी बच्चों में समान रूप से पाया जाता है| असफलता न केवल ‘आत्म प्रत्यय’ को प्रभावित करती है बल्कि व्यक्तिगत एवं सामाजिक समायोजन पर भी इसका प्रभाव हानिकारक होता है| इसके विपरीत सफलता का प्रभाव ‘आत्म प्रत्यय’ के विकास पर अनुकूल पड़ता है| ऐसे बच्चे व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में अत्यधिक समायोजित होते हैं|
व्यक्तित्व विकास में जीवन के प्रारम्भिक वर्षों के अनुभवों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है| व्यक्ति का प्रारंभिक अनुभव जैसा होगा उसी के अनुरूप उसके व्यक्तित्व की संरचना होगी| फ्रायड (1900) ने अपने मनोलैंगिक विकास में यह स्पष्ट किया है कि प्रारंभिक वर्षों में व्यक्ति के पूर्व अनुभव, बाद के वर्षों में उसके समूचे व्यक्तित्व को प्रभावित करती है| बालक का पूर्व अनुभव जैसा होगा वैसा ही उसका व्यक्तित्व होगा| अर्थात् यदि प्रारंभिक अनुभव सुखद होते हैं तो उसका बालक के व्यक्तित्व के विकास पर अच्छा प्रभाव पड़ता है| बालक अपने सामाजिकीकरण के दौरान उचित तथा अनुचित में भेद करना सीख लेते हैं तथा सामाजिक मानकों के अनुरूप व्यवहार करते हैं| यही अनुभव आगे चलकर बालक के व्यक्तित्व विकास में आधारशिला प्रदान करते हैं|
बच्चे का जन्म के बाद उसके सामजिकीकरण में सबसे पहली और महत्वपूर्ण भूमिका परिवार की होती है| इस क्षेत्र में हार्लो (1966) के अध्ययन में अंदर के नवजात शिशु को 1 वर्ष तक पूर्ण एकांत में रखा गया तथा पाया गया कि बंदर का बच्चा असामान्य व्यवहार प्रदर्शित करने लगा| छोटे बच्चे परिवार के वरिष्ठ सदस्यों के साथ तादात्मीकरण एवं अनुकरण करके अपना अलग अस्तित्व बनाने का प्रयास करता है| स्टैसी (1967) ने यह विचार प्रस्तुत किया है कि बच्चों में ‘आत्म नियत्रण, माता-पिता के सम्पर्क में रहने तथा उनके प्रभाव के कारण होता है| एक अन्य अध्ययन में ऐरो (1963) ने पाया कि बच्चों का संवेगात्मक और बौद्धिक विकास का प्रत्यक्ष सम्बन्ध बालक की माँ के साथ अंतः क्रिया की मात्रा तथा विशेषता से प्रत्यक्षतः सम्बन्धित है|
ग्लैसनर (196२) के अनुसार “ जिस प्रकार जीव का शुभारम्भ गर्भाशय में होता है उसी प्रकार व्यक्तित्व का विकास ‘पारिवारिक सम्बन्धों के गर्भाशय से ही प्रारम्भ होता है| बालक माता-पिता के अलावा परिवार के अन्य सदस्यों से अन्तः क्रिया करता है| यदि माता-पिता एवं परिवार के अन्य सदस्य बालक के साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार करते हैं तो निश्चित रूप से बालक के शीलगुणों में धनात्मक वृद्धि होगी| बालक परिवार में रहकर उचित-अनुचित, नैतिक-अनैतिक आदि मानयताओं को सीख लेता है जो उसके व्यक्तित्व विकास को निर्धारित करता है|
परिवार का आकार, परिवेश तथा जन्म क्रम भी व्यक्तित्व को प्रभावित करता है| परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक होने से संसाधनों की कमी अवश्यंभावी है| स्थिति में परिवार के आकार का व्यक्तित्व पर ऋणात्मक प्रभाव पड़ता है| पितृविहीन परिवारों में बच्चा भौतिक सुविधाओं के साथ-साथ स्वाभाविक प्यार-दुलार से वंचित रह जाता है जिसके परिणामस्वरूप वह कुसमायोजित होता जाता है| हरलॉक (1975) ने जन्म के क्रम को स्वीकार करते हुए कहा है कि प्रथम क्रम में आने वाली सन्तान में असुरक्षा की भावना अधिक होती है| अतः वह स्वयं को जल्द ही परिवार के साथ समायोजित कर स्वयं को परिपक्व बना लेता है| अंतिम क्रम के बालक में यद्यपि स्वतंत्रता की भावना अधिक होती है तथापि उनमें उत्तरदायित्व की भावना कम होती है, इसलिए उसका सामाजिक समायोजन अच्छा नहीं होता है| परिवार की आर्थिक स्थिति व्यक्तित्व को प्रभावित करती है है| यथा-अत्यधिक गरीब परिवार से जुड़े बच्चों में हीनता और असुरक्षा की भावना अपेक्षाकृत अधिक दिखाई देती है|
यद्यपि नाम का प्रत्यक्ष प्रभाव ‘आत्म प्रत्यय’ पर नहीं पड़ता, परन्तु बच्चे जब यह महसूस करने लायक हो जाते हैं कि’ लोग उसके नाम को सुनकर किस प्रकार की प्रतिक्रिया करते हैं तब उनका प्रभाव ‘आत्म सम्प्रत्यय’ पर पड़ता है| यदि नाम सुखद साहचर्यों के रूप में प्रकट होता है तो तो आत्म प्रत्यय पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है और यदि दुखकर साहचर्यों के रूप में प्रकट होता है तो आत्म प्रत्यय पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है| नाम, बच्चे के सामाजिक समबन्ध (मित्र मण्डली) को प्रभावित करते हैं| चूँकि नाम का महत्व बच्चों के लिए सांवेगिक रूप से महत्वपूर्ण होता है तथा वे अपने नाम के अच्छा या ख़राब का आंकलन इस आधार पर करते हैं कि अन्य लोग उसके नाम को किस प्रकार महत्व देते हैं| यदि धनात्मक आकलन होता है तो उसका प्रभाव अनुकूल होता है| अनाम या बच्चे के पुकार के नाम (उपनाम) का भी अत्यधिक महत्व होता है, तथा ये व्यक्तित्व पर गहरी छाप छोड़ते हैं|
हरलॉक (1974) ने व्यक्तित्व के निर्धारकों में परिवार के बाद विद्यालय को दूसरा स्थान किया है| बच्चा जब विद्यालयीय परिवेश में प्रविष्ट होता है तो उसका सामाजिक परिवेश और भी विस्तृत हो जाता है| माता-पिता के अलावा उसके लिए अब अध्यापक तथा मित्र मी प्रतिरूप का रूप ले लेते हैं| बालक इनका अनुकरण कर उसे अपने जीवन में उतारता है तथा वैसा बनने की कोशिश करता है| विद्यालय में वह शैक्षिक सफलता व असफलता का अनुभव प्राप्त करता है|
डेविडसन तथा लैंग (1960) ने प्राथमिक स्कूल के अनुभवों तथा बच्चों के स्वयं के प्रति प्रत्यक्षीकरण में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया है| इन्होने अध्ययन में पाया कि जो बच्चे स्वयं को शैक्षिक दृष्टि से अच्छा समझते हैं, उन बच्चों का व्यवहार अधिक उपयुक्त होता है| बच्चे के व्यक्तित्व विकास पर स्कूल के साथी समूह का महत्वपूर्ण योगदान होता है| जहाँ पर बच्चों और शिक्षकों के पारस्परिक सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण होते हैं. मनोरंजन व खेल-कूद के साधन उपलब्ध हैं तथा पाठ्यक्रम में बालक रूचि लेता है तो उन विद्यालयों के बच्चों में प्रायः अच्छे गुणों का विकास होता है| बेयर तथा हैविंगघ्रस्ट (1953) का सुझाव है कि स्कूल भेजने के पहले बच्चों में स्वतंत्रता तथा निर्भीकता का भाव विकसित करना चाहिए तथा बालक का व्यक्तित्व अच्छा हो सके इसके लिए अच्छे विद्यालयों में बालक को प्रवेश दिलाना चाहिए|
वे बच्चे जिन्हें सामाजिक स्वीकृति अधिक प्राप्त होती है उनमें सामाजिक अनुमोदन जैसे शीलगुणों का विकास होता है| इससे बच्चे का “आत्म प्रत्यय’ भी प्रभावित होता है| छोटे बच्चों में माता-पिता से अनुमोदन पाने की तीव्र लालसा होती है अतः वे ऐसी विशेषताएं विकसित करना चाहते हैं ताकि माता-पिता उनसे प्रसन्न रहें| जब बच्चे विद्यालय जाने योग्य हो जाते हैं तो अपनी मित्र मण्डली के सदस्यों का अनुमोदन पाना चाहते है| अतः अपने अंदर ऐसी विशेषताएं विकसित करते हैं ताकि मित्रों की सराहना उन्हें मिले| इस प्रकार सामाजिक स्वीकृति ‘आत्म प्रत्यय’ के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है|
संस्कृतियां व्यक्तित्व विकास को प्रभावित करती है| क्रच, क्रचफिल्ड तथा बैलेशी (1962) के अनुसार “सांस्कृतिक वातावरण में भिन्नता के कारण लोगों के आचार-विचार में भी भिन्नता आती है| जिस संस्कृति की जैसी मान्यता तथा विचारधारा होगी, उसमें पोषित लोगों में उसी प्रकार की गुणों का विकास भी होता है|”व्यक्तित्व संस्कृति का दर्पण होता है| अलग-अलग राष्ट्रों के व्यक्ति का व्यक्तित्व भिन्न- भिन्न होता है| यही नहीं एक ही राष्ट्र की विभिन्न उपसंस्कृतियाँ बच्चों के व्यक्तित्व को अलग-अलग ढंग से प्रभावित करती है| ब्रानफेनब्रेनर (1970) ने अमेरिका और रूस के बच्चों के पालन पोषण सम्बन्ध कार्य प्रणाली का अध्ययन किया तथा पाया कि रूस के बच्चों की फिजिकल हैण्डलिंग अमेरिका के बच्चों की तुलना में अधिक होती है| सांस्कृतिक मान्यताओं का ही परिणाम है कि कुछ समाज के व्यक्ति अधिक धर्मान्ध, शांत और विनम्र होते हैं जबकि कुछ समाज के सदस्य ईर्ष्यालु एवं आक्रामक होते हैं (मीड, 1937)| डेवोस एवं हिपलर (1969) का मानना है कि सांस्कृतिक तत्वों का प्रभाव बालक के व्यक्तित्व विकास पर बड़े वचित्र ढंग से पड़ता है|
स्त्रोत: मानव विकास का मनोविज्ञान, ज़ेवियर समाज सेवा संस्थान
Last Modified : 6/8/2019
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