सामाजिक विकास का आरंभ यद्यपि शैवशवास्था से होता है, परन्तु सामाजिक व्यवहारों के संरुपों की अभिव्यक्ति एवं व्यवहारों के प्रकार में वृद्धि क्रमशः आयु वृद्धि के साथ दृष्टिगत होती है| बालक के समाजीकरण का आरम्भ परिवार से होता है| परिवार में माता-पिता, भाई-बहन तथा अन्य सदस्यों के साथ बच्चा अन्तः क्रिया करता है, इससे उसके सामाजिक विकास की प्रक्रिया आरम्भ होती है| बच्चे का सामाजिक विकास उसकी परिवार में स्थिति, पालन पोषण की शैली तथा सामाजिक समायोजन से निर्धारित होती है|
पूर्व बाल्यावस्था बालक की ‘टोली पूर्व अवस्था’ कहलाती है| बच्चे स्वतंत्र खेल प्रदर्शित करते है| ये वयस्कों के साथ अधिक संतुष्ट रहते हैं तथा उनके साथ सामाजिक सम्पर्क रखने के प्रति अधिक रूचि दर्शाते हैं| पूर्व बाल्यावस्था के आरम्भ में, बच्चे समानांतर खेल का संरूप प्रदर्शित करते हैं अर्थात् दो बच्चे साथ रहकर भी स्वतंत्र रूप से (स्वान्तःसुखाय) खेल खेलते हैं| ‘स्वतंत्र खेल’ के पश्चात्’ सहचारी खेल’ का संरूप दिखता है तथा बालक में आधारभूत सामाजिक अभिवृत्ति याँ विकसित होती हैं| इस अवस्था के प्रमुख सामाजिक व्यवहार है- अनुकरण,प्रतिस्पर्धा, नकारवृत्ति, आक्रामकता, कलह, सहयोग, प्रभावित, स्वार्थपरता, सहानुभूति तथा सामाजिक अनुमोदन इत्यादि| बालक में प्रसामाजिक तथा समाज विरोधी दोनों प्रकार के व्यवहार परिलक्षित होते हैं| धनात्मक सामाजिक अभिवृतियाँ समाजोपयोगी व्यवहारों जैसे- अनुकरण,प्रतिस्पर्धा, सहयोग, प्रभाविता तथा सामाजिक अनुमोदन आदि के विकास में सहयोगी होती हैं जबकि ऋणात्मक सामाजिक अभिवृत्तियाँ समाज विरोधी व्यवहारों जैसे- नकारवृत्ति, आक्रामकता, कलह, स्वार्थपरता आदि को बालकों में उत्पन्न करती है| बालक में सामाजिक व्यवहारों के विकास में परिवार की भूमिका के अतिरिक्त उनकी मित्र मण्डली तथा उनके साथ अन्तःक्रिया का महत्वपूर्ण योगदान होता है| खेल तथा नाटकीय (जीववाद) के माध्यम से बालक सामाजिक व्यवहार सीखता है| खेल में उपयोग होने वाले निर्जीव खिलौने को सजीव मानकर व्यवहार प्रदर्शित करते हैं तथा नाटकीकरण के दौरान वास्तविक जीवन की घटनाओं की नकल कर सामाजिक व्यवहार प्रदर्शित करते हैं|
पूर्व बाल्यावस्था में बालकों में विभिन्न सामाजिक व्यवहार जैस नेतृत्व शैली, पठन-पाठन, मनोरंजन (सिनेमा, रेडियो तथा टेलीविजन) इत्यादि प्रविधियों के माध्यम से प्रदर्शित होते हैं| सामाजिक व्यवहारों के विकास का क्रम उत्तर बाल्यावस्था में भी जारी रहता है| इस अवस्था में बालक प्रायः समूहों का निर्माण करते हैं तथा समूह में अपनी अन्तः क्रिया करते हैं जिससे उनकी विकास गति अबाध रूप से चलती रहती है| इस अवस्था को ‘टोली अवस्था’ भी कहते हैं| इस अवस्था में बालक सभी सामाजिक व असामाजिक व्यवहार जैसे- खेल, आपसी सहयोग प्रदर्शित करना, लोगों को तंग करना, तम्बाकू खाना, भद्दे या गंदे वार्तालाप करना इत्यादि|
समूह से ही सीखते हैं| बच्चे टोली के अन्य बच्चों के सुझावों तथा व्यवहारों के प्रति अत्यधिक ग्रहणशील होते हैं तथा टोली के व्यवहार के अनुसार अपने अहं का विकास करते हैं| ये बालक मित्रों के व्यवहारों से अत्यधिक प्रभावित रहते हैं तथा अपने सामाजिक स्वीकृति को मित्र की स्वीकृति से जोड़ कर देखते हैं| इसी अवस्था में नेतृत्व के गुण का विकास होता है| टोली में जो बालक अत्यधिक प्रभुत्व प्रदर्शित करता है उसे सभी अपने टीम का नेता स्वतः चुन लेते हैं तथा वह समूह का नायक बन जाता है| वह समूह के अन्य सदस्यों से अधिक लोकप्रिय होता है|
स्त्रोत: मानव विकास का मनोविज्ञान, ज़ेवियर समाज सेवा संस्थान
Last Modified : 2/22/2020
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