बालकों में उत्पन्न होने वाले विकासात्मक परिवर्तनों के फलस्वरूप व्यक्तित्व के प्रतिमानों का भी विकास होता है| प्रतिमान का अर्थ स्वरुप या आकृति से होता है| इस प्रकार बालकों के व्यक्तित्व संरचना में पायी जाने वाली विभिन्न मनोदैहिक प्रणालियाँ परस्पर अन्तः सम्बन्धित होती हैं और एक-दूसरे को आंतरिक रूप से प्रभावित करती रहती हैं| इस प्रकार व्यक्तित्व के संरूप में दो घटकों का समावेश होता है, जिन्हें क्रमशः ‘स्व’ की अवधारणा एवं शीलगुण (Traits) के रूप में माना जाता है|
स्व’ का सम्प्रत्यय
बालक स्वयं के बारे में जो सोचता है तथा अपने बारे में जो अवधारणा विकसित करता है, उसे ‘स्व’ की अवधारणा कहते है| यह दो रूपों में हो सकता है, ‘वास्तविक स्व’ एवं ;आदर्शत्मक स्व’ ‘वास्तविक स्व’ का तात्पर्य है बच्चा अपने बारे में क्या सोचता है या प्रत्यक्षीकृत करता है, जैसे वह कौन है? उसमें क्या-क्या विशेषताएं हैं? आदि| ‘आदर्शात्मक स्व’ का आशय वह कैसा होना चाहता है’ तथा ‘आगे चलकर कैसा बनना चाहता है, इस प्रकार ‘स्व’ के दोनों रूपों में से प्रत्येक का सम्बन्ध शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक पहलू से होता है| शारीरिक दृष्टिकोण में शारीरिक अनुभव, यौन एवं शारीरिक क्षमता तथा मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण में बुद्धि, कौशल एवं अन्य लोगों के साथ मानसिक क्षमताओं का प्रदर्शन आदि से स्व सम्बन्धित होता है|
शीलगुण
व्यक्तित्व की संरचना अनेक शीलगुणों से मिलकर बनी होती है| यद्यपि इनका विकास अधिगम एवं अनुभूतियों पर निर्मर होता है| शीलगुण से तात्पर्य व्यवहार की विशेषता या समायोजन के प्रतिमान से है| जैसे संवेगात्मक स्थिरता, आक्रामकता, दयालुता, सहिष्णुता, विश्वसनीय आदि गुण विशिष्ट होते है, कुछ समान होते है तथा एक दूसरे से सम्बन्धित होते होते है| शीलगुण संलक्षण निर्मित होता है| जैसे शांत, एकान्तप्रिय, संकोची एवं दब्बू होने पर व्यक्ति को अन्तर्मुखी कहा जाता है| इसी प्रकार अनेक संलक्षणों की रचना हो सकती है| किसी व्यक्ति में जिन गुणों में प्रभुत्व एवं स्थायित्व की स्थिति पायी जाती है, उन्हें ही व्यक्तित्व का शीलगुण समझना चाहिए| शीलगुणों में भिन्नता के परिणामस्वरूप हम बालकों के व्यक्तित्व को भिन्न-भिन्न रूपों में प्रत्यक्षित करते हैं| इस प्रकार सभी बालकों के व्यवहार में अलग-अलग शीलगुणों का स्थायित्व प्रदर्शित होता है|
व्यक्तित्व संरूपों के स्थायी संगठन में ‘स्व’ की भूमिका प्रमुख होती है| यदि ‘स्व’ की वस्तुस्थिति में परिवर्तन होता है तो प्रतिमानों का स्वरुप भी परिवर्तित होता है| यदि स्वयं के बारे में बच्चे द्वन्द्व का अनुभव करते हैं तो संरूप के संगठन में स्थायित्व नहीं आ पाता|
जैसे: माता-पिता बच्चे को अच्छा कहते हैं परन्तु मित्रमंडली अस्वीकार करती है| इस प्रकार ‘वास्तविक स्व’ एवं आदर्शात्मक स्व’ में अधिक वसंगति होती है| कैटेल एवं ड्रिगल (1974) के अनुसार यदि बालक स्वयं को सुयोग्य समझता है तो उसका समायोजन यथोचित ढंग से होता है परन्तु उसके मन में निषेधात्मक भावनाएं उत्पन्न होने उसमें व्यक्तिगत तथा सामाजिक समायोजन की समस्याएँ उत्पन्न होने लगती हैं|
व्यक्तित्व के विकास में आनुवांशिक कारक तथा परिवेशीय कारक दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है| थॉमस एंव सहयोगियों (1070) का मानना है की यदि आनुवांशिकता तथा पर्यावरण के बीच सही ढंग से समायोजन स्थापित नहीं होगा तो संगठित व्यक्तित्व का विकास होना असम्भव है व्यक्तिगत अनुभव भी व्यक्तित्व विकास को प्रभावित करते हैं| शाल (1960) के अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि जिन बच्चों की कष्टदायक अनुभूतियाँ अधिक होती हैं वे सुखद अनुभव रखने वाले बच्चों की तुलना में कम समायोजित होते हैं|
‘स्व का विकास
‘स्व’ के विकास में सामाजिकीकरण की अहम भूमिका होती है| बच्चों के प्रारंभिक ‘स्व’ के स्वरुप पर माता-पिता तथा सहोदरों का अधिक प्रभाव पड़ता है, क्योंकि वे प्रारम्भिक वर्षों में उन्हीं के सम्पर्क में सर्वाधिक रहते है| बोसार्ड (1956) का मानना है जिस बालक के छोटे भाई-बहन होते हैं उनकी भूमिका परिवार में एक जिम्मेदार बालक की हो सकती है| इसका भी प्रभाव बालक के स्व के विकास पर पड़ता है| बालक जब स्कूल में प्रवेश करता है तब उसका सामाजिक दायरा बढ़ता है जिससे उसका स्व एकांगी हो जाता है| बालक की विभिन्न वस्तुओं, व्यक्तियों एवं घटनाक्रमों के प्रति अभिवृतियां उन अभिवृत्तियों से प्रभावित होती हैं जो उसके जीवन में प्रमुख अभिकर्ता जैसे शिक्षक, माता-पिता, पड़ोसी, मित्र के रूप में महत्वपूर्ण होती हैं अतः उसका स्व सम्प्रत्यय ‘ प्रतिविविम्मिवत मुल्यांकनों” से बना होता है| यदि वे मूल्याकंन अनुकूल हुए तो बालक का ‘स्व’ अनुकूल होगा, अन्यथा वह अपना अवमुल्यांकन करेगा| अतः ‘स्व’ के विकास में मानसिक क्षमताएँ, जो विभिन्न परिस्थितियों को समझने तथा उपयुक्त व्यवहार करने में सहायक होती हैं, की भूमिका महत्वपूर्ण होती है|
शीलगुणों का विकास
आनुवांशिकता की भूमिका शीलगुणों के विकास में महत्वपूर्ण होती है| शीलगुणों के विकास में अनुकरण प्रमुख क्रियातंत्र के रूप में कार्य करता है| इसमें बालक अपने माता-पिता, शिक्षक, मित्रों आदि को आदर मानकर उनका अनुकरण करता है तथा उनके व्यवहारों को अपने जीवन में उतारता है| यथा- जो बच्चे कठोर अनुशासन में पलते हैं वे प्रायः आक्रामकता के गुण अर्जित कर लेते हैं| एरिक्सन (1964) के अनुसार बच्चों से अन्य लोगों की प्रत्याशाएँ और उनके प्रति बच्चों का दृष्टिकोण शीलगुणों को विकसित करने में मदद करते हैं| इमरिच(1974) ने अध्ययनों के आधार पर पुष्ट किया कि ज्यों-ज्यों बालक की आयु और अनुभव में वृद्धि होती है, शीलगुणों में भी परिवर्तन होता जाता है| शीलगुणों के अंतर्गत ‘वैयक्तिकता’ तथा ‘स्थिरता’ दो महत्वपूर्ण घटक पाए जाते हैं|
वैयक्तिकता
‘वैयक्तिकता’ शीलगुण की एक महत्वपूर्ण विशेषता है| हरलॉक के अनुसार शीलगुण की प्रकार्यात्मक भिन्नता ‘वैयक्तिकता कहलाती है| ‘वैयक्तिकता प्रत्येक बालक में अलग-अलग होती है, अर्थात लोगों के व्यवहारों में समानता के साथ-साथ असमानता भी पायी जाती है| आनुवांशिकता, व्यक्तिगत तथा सामाजिक कारक वैयक्तिकता के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है, जिसकी अभिव्यक्ति बाल्यावस्था में परिलक्षित होने लगती है (गार्डनर, 197२) |
स्थिरता
व्यक्तित्व की विशेषताएँ सापेक्षिक रूप से स्थायी होती हैं (आलपोर्ट, 1961) अतः व्यक्तित्व में स्थायित्व/स्थिरता का आशय यह नहीं है कि व्यक्तित्व में परिवर्तन असम्भव है तथापि व्यक्तित्व के मुलगुणों का स्वरुप पुर्णतः समाप्त नहीं होता| | हरलॉक (1978) ने पूर्व बाल्यावस्था के कुछ बालको पर जननिक अध्ययन किया तथा पाया कि पूर्व बाल्यावस्था में जो व्यक्तित्व का रूप बन जाता है उसके आधार के बारे में में पूर्व लाना अपेक्षाकृत सरल होता तथापि परिवर्तन में तब स्थिरता आ जाती है जब व्यक्तित्व सम्बन्धी शील गुण दृढ़ हो जाते हैं|
बालक जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है वैसे-वैसे उसके व्यक्तित्व में स्थिरता आती जाती है| उत्तर बाल्यावस्था के अंत तक व्यक्तित्व में स्थिरता प्रबल हो जाती है| परिपक्वता के अतिरिक्त प्रशिक्षण, संरक्षकीय शैली, भूमिका निर्वाह एवं सामाजिक वातावरण आदि व्यक्तित्व में स्थिरता लाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं|
व्यक्तित्व में यद्यपि स्थायित्व का गुण पाया जाता है किन्तु कभी-कभी विभिन्न कारणों से इन विशेषताओं के स्वरुप में परिवर्तन दृष्टिगत होता है| यहाँ परिवर्तन का आशय ‘बदल जाना’ या भिन्न लगने से है| निश्चित रूप से यह आशय पूर्ण परिवर्तन से नहीं लिया जायगा| पर्याप्त साक्ष्यों से पृष्टि होती है कि ‘स्व’ सम्प्रत्यय और शीलगुण दोनों व्यक्तित्व में परिवर्तन तथा परिमार्जन करते हैं| इस सन्दर्भ में शीलगुणों के द्वारा व्यक्तित्व में गुणात्मक परिवर्तन होते है| बच्चों द्वारा अवांछित गुणों का परित्याग करके वांछित गुणों को अर्जित करना गुणात्मक परिवर्तन कहलाता है| इसके विपरीत कम वांछित व्यवहार को अधिक वांछित व्यवहार में परिवर्तित करना मात्रात्मक परिवर्तन कहलाता है| थामस और उनके साथियों (1970) ने यह व्याख्या करते हुए बताया कि ‘एक बच्चे की मानसिकता अपरिवर्तनीय है, तथापि मानसिकता के विकास में पर्यावरणीय परिस्थितियां या तो बढ़ सकती है या कम हो सकती है जिससे बच्चे की प्रतिक्रियाओं और व्यवहारों में परिमार्जन होता है|”
परिस्थितियाँ और व्यक्तित्व के समायोजन से या स्पष्ट होता है कि व्यक्तित्व संरूपों में परिवर्तन वास्तविक रूप से होता है, यह केवल ‘अग्रणी’ बच्चों में होता है जबकि वयस्कों में यह परिवर्तन कम होता है| बच्चों का व्यवहार परिमार्जित तब होता हैं जब उन पर सामाजिक दबाव पड़ता है| ये सामाजिक दबाव, सामजिक अनानुमोदन से बचाव करने के फलस्वरूप और सामाजिक अनुमोदन को पाने की आशा के फलस्वरूप निर्मित होते है| लेकिन जब समाजिक दबाव बच्चे के ऊपर नहीं होता है तब वे अपने व्यवहार के अगले संरूपों को बनाते है| इस प्रकार से यह अनुपयोगी भी है उदाहरणार्थ आक्रामक प्रवृत्ति के बच्चों में उनके आक्रामक व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए जब हम सामाजिक दबाव को प्रत्यक्षतः प्रयोग में लाते हैं तब बच्चे की आक्रामकता अनानुमोदित सामाजिक प्रतिक्रियाओं के रूप में बढ़ जाती है| इस सन्दर्भ में आलैंड एवं एलिस (1976) ने अध्ययनों द्वारा यह बताया कि जिन अवसरों पर बच्चों को अनानुमोदन नहीं दिया जाता है, उन बच्चों में आक्रामकता विकसित हो जाती है|
व्यक्तित्व संरूप की धुरी ‘आत्म प्रत्यय’ सापेक्षिक रूप से स्थायी होती है| तथापि अनेक कारक व्यक्तित्व को परिवर्तित करने में प्रमुख निभाते हैं|
अनेक कारक व्यक्तित्व में परिवर्तन के लिए जिम्मेदार होते हैं, इनमें से कुछ प्रमुख हैः-
दैहिक परिवर्तन – मष्तिष्क में संरचनात्मक विकृत्ति, आंगिक विकृति, अंतः स्रावी विकृतियाँ, कुपोषण, चोट-चपेट, बीमारी, मादक पदार्थ आदि का प्रभाव बच्चों के ‘स्व’ सम्प्रत्यय पर पड़ता है| जो व्यक्तित्व परिवर्तन को प्रभावित करता है|
परिवेशीय परिवर्तन - पर्यावरण में परिवर्तन से बच्चों की स्थिति में भी परिवर्तन होता है| यद्यपि ‘स्व सम्प्रत्यय’ पर अनुकूल प्रभाव पड़ना पर्यावरणीय परिवर्तनों से नहीं आता है,फिर भी बच्चों के व्यक्तित्व के परिवर्तन तथा परिमार्जन में पर्यावरणीय कारकों का विशेष योगदान होता है|
सामाजिक दबाब - व्यक्तित्व परिवर्तन में बच्चों के ऊपर सामाजिक दबावों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है जो आंतरिक तथा वाह्य दोनों रूपों में प्रभावी होता है|
क्षमता में वृद्धि - सक्षमता में वृद्धि अर्थात् पेशीय रूप में या मानसिक क्षमताओं में वृद्धि का प्रभाव ‘स्व’ सम्प्रत्यय पर अनुकूल पड़ता है तथा ये पेशीय तथा मानसिक कौशल, बच्चों में उपयुक्तता की भावना से लेकर अनुपयुक्तता की भावनाओं को विकसित कराने में भूमिका अदा करते हैं|
भूमिका परिवर्तन - बच्चे अपने ‘स्व’ के सम्प्रत्यय में सुधार तथा परिमार्जन अनेक भूमिकाओं को करके करते हैं| जैसे-बालक घर में, पड़ोसी से, तथा स्कूल में अलग-अलग सन्दर्भों में नेतृत्व की अलग-अलग शैलियों को अपनाता है तथा अनुभव भी करता है| इस प्रकार का परिवर्तन बच्चा दिन में की बार करता है अर्थात् स्कूल में छात्र के रूप में, घर में एक पुत्र के रूप में व्यवहार तथा पड़ोसी के घर औपचारिक ढंग से, व्यवहार प्रदर्शित करता है|
व्यवसायिक सहायता - व्यवसायिक सहायता द्वारा भी बच्चों के व्यक्तित्व में परिवर्तन संभव है| मनोचिकित्सा एक ऐसी व्यवसायिक प्रविधि है जिसमें प्रतिकूल ‘स्व’ सम्प्रत्ययों के कारणों को मनोचिकित्सक समझता है तथा रोगी की अनुकूल व्यवहार के लिए उचित मार्गदर्शन देता है, जो मनोग्रसित बच्चों के भविष्य निर्माण हेतु सहायक होता है|
स्त्रोत: मानव विकास का मनोविज्ञान, ज़ेवियर समाज सेवा संस्थान
Last Modified : 2/22/2020
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